पृष्ठ:स्कंदगुप्त.pdf/२४६

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कालिदास
 

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कालिदास वस्तुतः चन्द्रगुप्त के जीवन-काल में साम्राज्य की वृद्धि के अतिरिक्त उसका ह्रास नहीं हुआ ! यह स्कंदगुप्त के समय में ही हुआ कि उसे अनेक षड्यन्त्र और विपत्ति तथा कष्टों का सामना करना पड़ा । जिस समय पुरगुप्त के अन्तर्विद्रोह से मगध और अयोध्या छोड़कर स्कंदगुप्त विक्रमादित्य ने उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाई, और साम्राज्य का नया संगठन हो रहा था, उसी समय मातृगुप्त को काश्मीर का शासक नियत किया गया । यह समय ईसवी सन् ४५० से ५०० के बीच पड़ता है। ४६७ ई० में स्कंदगुप्त विक्रमादित्य का अन्त हुआ । उसी समय मातृगुप्त (कालिदास ) ने काश्मीर का राज्य स्वयं छोड़ दिया और काशी चले आये । अब बहुत-से लोग इस बात की शंका करेंगे कि कहाँ उज्जयिनी, कहाँ मगध, कहाँ काश्मीर, फिर काशी, और सबके बाद सिहल जाना—यह बड़ा दूरान्वय संबंध है। परन्तु उस काल में सिंहल और भारत में बड़ा संबंध था। महाराज समुद्रगुप्त के समय में सिंहल के राजा मेघव ने उपहार भेज कर बाध-गया से एक विहार बनाने की प्रार्थना की थी ; महावंश और समुद्रगुप्त के लेख में इसका संकेत है और महावधिविहार सिंहल के राजकुल को कीर्ति है। तव से सिंहल के राजकुमार और राजकुल के भिक्षु इस विहार में वरावर आते रहते थे। बोधगया से लाया हुआ पदना-म्यूजियम में एक शिलालेख है-( नं० ११३); यह प्रमाण प्रख्यातकीर्ति का है-* लङ्कद्वीपनरेन्द्राणां श्रमणः कुलजोभवत् । प्रख्यातकीर्तिधर्मात्मा स्वकुलाम्वरचन्द्रमा । महानामन के शिलालेख से भी इसकी पुष्टि होती है--

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