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स्कंदगुप्त
 

रामा--महादेवी देवकी की रक्षा करनी होगी, समझा? क्या आज इस संपूर्ण गुप्त-साम्राज्य में कोई ऐसा प्राणी नहीं, जो उनको रक्षा करे! शत्रु अपने विषैले डंक और तीखे डाढ़ सँवार रहे हैं। पृथ्वी के नीचे कुमंत्रणाओं का क्षीण भूकम्प चल रहा है।

शर्व॰--यही तो मैं भी कभी-कभी सोचता था। परन्तु...

रामा--तुम, जिस प्रकार हो सके, महादेवी के द्वार पर आओ, मै जाती हूँ।

(जाती हैं)

(एक सैनिक का प्रवेश)

सैनिक--नायक! न जाने क्यों हृदय दहल उठा है, जैसे सनसन करती हुई, डर से, यह आधी रात खिसकती जा रही है! पवन में गति है, परन्तु शब्द नहीं। 'सावधान' रहने का शब्द मैं चिल्लाकर कहता हूँ, परन्तु मुझे ही सुनाई नहीं पड़ता है। यह सब क्या है नायक?

शर्व॰--तुम्हारी तलवार कहीं भूल तो नहीं गई है?

सैनिक--म्यान हल्की-सी लगती है, टटोलता हूँ--पर...

शर्व॰--तुम घबराओ मत, तीन साथियों को साथ लेकर घूमो, सबको सचेत रक्खो। हम इसी शिला पर हैं, कोई डरने की बात नहीं।

(सैनिक जाता हैं, फाटक खोलकर पुरगुप्त निकलता है, पीछे भटार्क और सैनिक।)

पुरगुप्त--नायक शर्वनाग!

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