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प्रथम अंक
 


अपशकुन नहीं। तुम यह न समझना कि हम दूर चलते-चलते थक गये हैं। तुम्हारा पीछा न छूटेगा। हम ब्राह्मण हैं, हमसे शास्त्रार्थ कर लो। डंडा न दिखाओ। हाँ, मेरी गठरी जो तुम लेते हो, इसमें कौन-सा न्याय है? बोलो--

मातृगुप्त--न्याय? तब तो तुम आप्तवाक्य अवश्य मानते होगे।

मुद्गल--अच्छा तो तर्कशास्त्र लगाना पड़ेगा?

मातृगुप्त--हाँ; तुमने गीता पढ़ी होगी?

मुद्गल--हाँ अवश्य, ब्राह्मण और गीता न पढ़े!

मातृगुप्त--उसमें तो लिखा है कि "न त्वेवाहं जातु नाऽसौ न त्वं नेमे"--न हम हैं न तुम हो, न यह वस्तु है, न तुम्हारी है न हमारी;--फिर इस छोटी-सी गठरी के लिये इतना झगड़ा!

मुद्गल--ओहो! तुम नहीं समझे।

मातृगुप्त--क्या?

मुद्गल--गीता सुनने के बाद क्या हुआ?

मातृगुप्त--महाभारत!

मुद्गल--तब भइया, इस गठरी के लिये महाभारत का एक लघु संस्करण हो जाना आवश्यक है। गठरी में हाथ लगाया कि डंडा लगा! (डंडा तानता है)

मातृगुप्त--मुद्गल, डंडा मत तानो, मैं वैसा मूर्ख नहीं कि सूच्यग्र-भाग के लिये दूध और मधु से बना हुआ एक बूंद रक्त भी गिराऊँ!

(गठरी देता है)

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