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स्कंदगुप्त
 


मुद्गल--अरे कौन! मातृगुप्त!

( नेपथ्य में कोलाहल )

मातृगुप्त--हाँ मुद्गल। इधर ते शक और हूण की सम्मिलित सेना घोर आतंक फैला रही है, चारों ओर विप्लव का साम्राज्य है। निरीह भारतीयों की घोर दुर्दशा है|

मुद्गल--और मैं महादेवी का संदेश लेकर अवन्ती गया, वहाँ युवराज नहीं थे। बलाधिकृत पर्णदत्त की आज्ञा हुई कि महाराजपुन्न गोविन्दगुप्त को, जिस तरह हो, खोज निकालो। यहाँ तो विकट समस्या है। हम लोग क्या कर सकते हैं ?

मातृगुप्त--कुछ नही, केवल भगवान से प्रार्थना! साम्राज्य में कोई सुननेवाला नहीं, अकेले युवराज स्कन्दगुप्त क्या करेंगे?

मुद्गल--परन्तु भाई, हम ईश्वर होते तो इन मनुष्यो की कोई प्रार्थना सुनते ही नही। इनके हर काम में हमारी आवश्यकता पड़ती है! मैं तो घबरा जाता, भला वह तो कुछ सुनते भी हैं। मातृगुप्त नही मुद्गल, निरीह प्रजा का नाश देखा नहीं जाता है क्या इनकी उत्पत्ति का यही उद्देश था? क्या इनका जीवन केवल चीटियो के समान किसीकी प्रतिहिंसा पूर्ण करने के लिये है? देखो वह दूर पर बँधे हुए नागरिक और उनपर हूणो की नृशंसता! ओह!!

मुद्गल--अरे! हाय रे बाप!!

मातृगुप्त--सावधान! असहाय अवस्था में प्रार्थना के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं, आओ हम लोग भगवान से विनती करें--

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