पृष्ठ:स्कंदगुप्त.pdf/४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
स्कंदगुप्त
 


नागरिक--प्राण तो तुम्हारे हाथों में है, जब चाहे ले लो।

हूण-सेनापति--( कोड़े से मारता हुआ ) उसे तो ले ही लेंगे, पर, धन कहाँ है ?

नागरिक--नहीं है निर्दय! हत्यारे! कह दिया कि नहीं है।

हूण-सेनापति—( सैनिकों से ) इनके बालकाों को तेल से भीगा हुआ कपड़ा डालकर जला दो और स्त्रियों को गरम लोहो से दागो।

स्त्रियाँ--हे नाथ!

हमारे निर्बलो के बल कहाँ हो
हमारे दीन के सम्बल कहाँ हो

पुरुष--नहीं हो नाम ही बस नाम है क्या

सुना केवल यहाँ हो या वहाँ हो

स्त्रियाँ-पुकारा जब किसीने तब सुना था

भला विश्वास यह हमको कहाँ हो
( स्त्रियों को पकड़कर हूण खीचते हैं )

मातृगुप्त—हे प्रभु!

हमें विश्वास दो अपना बना लो
सदा स्वच्छन्द हों–चाहे जहाँ हों

इन निरीहों के लिये प्राण उत्सर्ग करना धर्म्म है। कायरो! स्त्रियों पर यह अत्याचार!!

( तलवार से बंधन काटता है। लपकते हुए एक सन्यासी का प्रवेश ।)

४०