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स्कंदगुप्त
नागरिक--प्राण तो तुम्हारे हाथों में है, जब चाहे ले लो।
हूण-सेनापति--( कोड़े से मारता हुआ ) उसे तो ले ही लेंगे, पर, धन कहाँ है ?
नागरिक--नहीं है निर्दय! हत्यारे! कह दिया कि नहीं है।
हूण-सेनापति—( सैनिकों से ) इनके बालकाों को तेल से भीगा हुआ कपड़ा डालकर जला दो और स्त्रियों को गरम लोहो से दागो।
स्त्रियाँ--हे नाथ!
- हमारे निर्बलो के बल कहाँ हो
- हमारे दीन के सम्बल कहाँ हो
पुरुष--नहीं हो नाम ही बस नाम है क्या
- सुना केवल यहाँ हो या वहाँ हो
स्त्रियाँ-पुकारा जब किसीने तब सुना था
- भला विश्वास यह हमको कहाँ हो
- ( स्त्रियों को पकड़कर हूण खीचते हैं )
मातृगुप्त—हे प्रभु!
- हमें विश्वास दो अपना बना लो
- सदा स्वच्छन्द हों–चाहे जहाँ हों
इन निरीहों के लिये प्राण उत्सर्ग करना धर्म्म है। कायरो! स्त्रियों पर यह अत्याचार!!
( तलवार से बंधन काटता है। लपकते हुए एक सन्यासी का प्रवेश ।)
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