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प्रथम अंक
 

संन्यासी–साधु! वीर! सम्हलकर खड़े हो जाओ--भगवान पर विश्वास करके खड़े हो।

मुद्गल--( पहचानता हुआ ) जय हो, महाराजपुत्र गोविन्द-गुप्त की जय हो !

( सब उत्साहित होकर भिड़ जाते हैं ; हूण-सैनिक भागते हैं। )

गोविन्द०--अच्छा मुद्गल! तुम यहाँ कैसे? और युवक! तुम कौन हो?

मातृगुप्त--युवराज स्कंदगुप्त का अनुचर।

मुद्गल--वीर-पुङ्गव! इतने दिनों पर दर्शन भी हुआ तो इस वेष मे!

गोविन्द०--मुद्गल! क्या कहूँ। स्कंद कहाँ है?

मातृगुप्त-उज्जयिनी में।

गोविन्द०--अच्छा है, सुरक्षित है। चलो, दुर्ग में हमारी सेना पहुँच चुकी है, वहाँ विश्राम करो। यहाँ का प्रबन्ध करके हमको शीघ्र आवश्यक कार्य से मालव जाना है। अब हूणो के आतंक का डर नहीं।

सब--जय हो राजकुमार गोविन्दगुप्त की!

गोविन्द०--पुष्यमित्रो के युद्ध का क्या परिणाम हुआ?

मातृगुप्त-विजय हुई।

गोविन्दु०--और मालव का?

मुद्गल--युवराज थोड़ी सेना लेकर बन्धुवर्म्मा की सहायता के लिये गये है।

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