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[ अवन्ती का दुर्ग ]

( देवसेना, विजया, जयमाला )

विजया--विजय किसकी होगी, कौन जानता है।

जयमाला--तुमको केवल अपने धन की रक्षा का इतना ध्यान है।

देवसेना--और देश के मान का, स्त्रियों की प्रतिष्ठा का, बच्चों की रक्षा का कुछ नही।

विजया--( संकुचित होकर ) नहीं, मेरा अभिप्राय यह नहीं था।

जयमाला--परन्तु एक उपाय है।

विजया--वह क्या?

जयमाला--रक्षा का निश्चित उपाय।

देवसेना--तुम्हारे पिता ने तो उस समय नहीं माना, न सुना, नहीं तो आज इस भय का अवसर ही न आता|

जयमाला--तुम्हारी अपार धन-राशि में से एक क्षुद्र अंश, वही यदि इन धन-लोलुप शृगालों को दे दिया जाता तो••••••

विजया--किन्तु इस प्रकार अर्थ देकर विजय खरीदना तो देश की वीरता के प्रतिकूल है।

जयमाला--ठहरो, कोई आ रहा है।

( बन्धुवर्म्मा का प्रवेश )

बंधुवर्मा--प्रिये! अभी तक युवराज का कोई संदेश नहीं मिला। संभवतः शक और हूणों की सम्मिलित वाहिनी से आज दुर्ग की रक्षा न कर सकूँगा।

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