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द्वितीय अंक


[ मालव में शिप्रा-तट-कुंज ]

देवसेना--इसी पृथ्वी पर है और अवश्य है।

विजया--कहाँ राजकुमारी? संसार में छल, प्रवञ्चना और हत्याओं को देखकर कभी-कभी मान ही लेना पड़ता है कि यह जगत् ही नरक है। कृतघ्ता और पाखंड का साम्राज्य यहीं है। छीना-झपटी, नोच-खसोट, मुँह में से आधी रोटी छीन कर भागनेवाले विकट जीव यहीं तो है। श्मशान के कुत्तों से भी बढ़कर मनुष्यों की पतित दशा है।

देवसेना--पवित्रता की माप है मलिनता, सुख का आलोचक है दुःख, पुण्य की कसौटी है पाप। विजया! आकाश के सुन्दर नक्षत्र आँखो से केवल देखे हो जाते है; वे कुसुम-कोमल है कि वज्र-कठोर--कौन कह सकता है। आकाश में खेलती हुई कोकिल की करुणामयी तान का कोई रूप है या नही, उसे देख नहीं पाते। शतदल और पारिजात का सौरभ बिठा रखने की वस्तु नहीं। परन्तु संसार में ही नक्षत्र से उज्ज्वल--किन्तु कोमल–स्वर्गीय संगीत की प्रतिमा तथा स्थायी कीर्त्ति-सौरभ वाले प्राणी देखे जाते हैं! उन्हीं से स्वर्ग का अनुमान कर लिया जा सकता है।

विजया-होंगे, परन्तु मैंने नहीं देखा।

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