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द्वितीय अंक
 


देवसेना--तुमने सचमुच कोई ऐसा व्यक्ति नहीं देखा?

विजया--नहीं तो---

देवसेना--समझकर कहो।

विजया--हाँ, समझ लिया है।

देवसेना--क्या तुम्हारा हृदय कही पराजित नहीं हुआ? विजया! विचारकर कहो, किसी भी असाधारण महत्त्व से तुम्हारा उदंड हृदय अभिभूत नहीं हुआ? यदि हुआ है तो वही स्वर्ग है। जहाँ हमारी सुन्दर कल्पना आदर्श का नीड़ बनाकर विश्राम करती है, वही स्वर्ग है। वही विहार का, वही प्रेम करने का स्थल स्वर्ग है, और वह इसी लोक में मिलता है। जिसे नहीं मिला, वह इस संसार में अभागा है।

विजया--तो राजकुमारी, मैं कह दूँ?

देवसेना--हाँ, हाँ, तुम्हें कहना ही होगा।

विजया--मुझे तो आज तक किसीको देखकर हारना नहीं पड़ा। हाँ, एक युवराज के सामने मन ढीला हुआ, परंतु मैं उसे कुछ राजकीय प्रभाव भी कहकर टाल दे सकती हूँ।

देवसेना--नहीं विजया! वह टालने से, बहला देने से, नहीं हो सकता। तुम भाग्यवती हो, देखो यदि वह स्वर्ग तुम्हारे हाथ लगे। ( सामने देखकर ) अरे लो! वह युवराज आ रहे हैं। हम लोग हट चलें।

( दोनों जाती हैं, स्कंदगुप्त का प्रवेश, पीछे चक्रपालित )

स्कंद०--विजय का क्षणिक उल्लास हृदय की भूख मिटा

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