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स्कंदगुप्त
 


देवसेना--नहीं विजया, बात ऐसी है। धनवानों के हाथ में माप ही एक है। वह विद्या, सौन्दर्य, बल, पवित्रता, और तो क्या, हृदय भी उसीसे मापते हैं। वह माप है-उनका ऐश्वर्य्य।

विजया--परन्तु राजकुमारी! इस उदार दृष्टि से तो चक्रपालित क्या पुरुष नहीं है? है अवश्य। वीर हृदय है, प्रशस्त वक्ष है, उदार मुखमंडल है!

देवसेना--और सबसे अच्छी एक बात है। तुम समझती हो कि वह महत्त्वाकांक्षी है। उसे तुम अपने वैभव से क्रय कर सकती हो, क्यो? भाई, तुमको लेना है, तुम स्वयं समझ लो, मेरी दलाली नहीं चलेगी।

विजया--जाओ राजकुमारी!

देवसेना--एक गाना सुनोगी?

विजया--महारानी खोजती होंगी, अब चलना चाहिये।

देवसेना--तब तुम अभी प्रेम करने का, मनुष्य फंसाने का, ठीक सिद्धांत नहीं जानती हो।

विजया--क्या?

देवसेना--नये ढंग के आभूषण, सुन्दर वसन, भरा हुआ यौवन--यह सब तो चाहिये ही, परन्तु एक वस्तु और चाहिये। सुपुरुष को वशीभूत करने के पहले चाहिये एक धोखे की टट्टी। मेरा तात्पर्य है--एक वेदना अनुभव करने का, एक विह्वलता का, अभिनय उसके मुख पर रहे जिससे कुछ आड़ी-तिरछी रेखाएँ मुख पर पड़ें, और मूर्ख मनुष्य उन्हीं को पढ़ लेने के लिये

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