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स्कंदगुप्त
 


अकेले अपने सौरभ की तान से दक्षिण-पवन में कम्प उत्पन्न करता है, कलियो को चटकाकर ताली बजाकर, झूम-झूमकर नाचता है। अपना नृत्य, अपना संगीत, वह स्वयं देखता है--सुनता है। उसके अंतर से जीवन-शक्ति वीणा बजाती है। वह बड़े कोमल स्वर मे गाता है--

घने प्रेम-तरु-तले

बैठ छाँह लो भव-आतप से तापित और जले

छाया है विश्वास की श्रद्धा-सरिता-कूल

सिंची आँसुओं से मृदुल है परागमय धूल

यहाँ कौन जो छले

फूल चू पड़े वात से भरे हृदय का घाव

मन की कथा व्यथा-भरी बैठो सुनते जाव

कहाँ जा रहे चले

पी लो छवि-रस-माधुरी सींचो जीवन-बेल

जी लो सुख से आयु-भर यह माया का खेल

मिलो स्नेह से गले

घने प्रेम-तरु-तले

( बन्धुवर्म्मा को प्रवेश )

देवसेना--( संकुचित होती-सी ) अरे, भइया--

बंधुवर्म्मा--देवसेना, तुझे गाने का भी विचित्र रोग है।

देवसेना--रोग तो एक-न-एक सभी को लगा है। परन्तु यह रोग अच्छा है, इससे कितने रोग अच्छे किये जा सकते हैं।

बंधुवर्म्मा--पगली! जा देख, युवराज जा रहे है; कुसुमपुर से कोई समाचार आया है।

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