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[ मठ में प्रपंचबुद्धि, भटार्क और शर्वनाग ]

प्रपंच०–बाहर देख लो, कोई है तो नहीं ।

(शर्व जाकर लौट आता है)

शर्व०--कोई नहीं, परन्तु आप इतना चौकते क्यों हैं? मै तो कभी यह चिन्ता नहीं करता कि कौन आया है या आवेगा।

प्रपंच०--तुम नहीं जानते।

शर्व०--नहीं श्रमण! मैं खड्ग हाथ में लिए प्रत्येक भविष्यत् की प्रतीक्षा करता हूँ। जो कुछ होगा, वही निबटा लेगा। इतने डर की, घबराहट की, आवश्यकता नही। विश्वास करना और देना, इतने ही लघु व्यापार से संसार की सब समस्याएं हल हो जायँगी।

प्रपंच०--प्रत्येक भित्ति के किवाड़ों के कान होते हैं; समझ लेना चाहिये, देख लेना चाहिये।

शर्व०--अच्छी बात है, कहिये।

भटार्क--तुम पहले चुप तो रहो।

(शर्व चुप रहने की मुद्रा बनाता है।)

प्रपंच०--धर्म्म की रक्षा करने के लिये प्रत्येक उपाय से काम लेना होगा।

शर्व०--भिक्षु-शिरोमणे! वह कौन-सा धर्म्म है, जिसकी हत्या हो रही है?

प्रपंच०--यही हत्या रोकना, अहिंसा, गौतम का धर्म्म है। यज्ञ की बलियों को रोकना, करुणा और सहानुभूति की प्रेरणा से कल्याण का प्रचार करना। हाँ, अवसर ऐसा है कि हम वह

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