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स्कंदगुप्त
 


भागता है। कायरता! अबला महादेवी की हत्या! किस प्रलोभन में तुम पिशाच बन रहे हो?

भटार्क--सावधान शर्व! इस चक्र से तुम नहीं निकल सकते। या तो करो या मरो। मैं सज्जनता का स्वांग नहीं ले सकता, मुझे वह नहीं भाता। मुझे कुछ लेना है, वह जैसे मिलेगा--लूँगा। साथ दोगे तो तुम भी लाभ में रहोगे।

शर्व--नहीं भटार्क! लाभ ही के लिये मनुष्य सब काम करता, तो पशु बना रहना ही उसके लिये पर्याप्त था। मुझसे यह काम नहीं होने का!

प्रपंच०--ठहरो भटार्क! मुझे पूछने दो। क्यों शर्व! तुमने जो यह अस्वीकार किया है, वह क्यों? पाप समझकर?

शर्व०--अवश्य।

प्रपंच--तुम किसी कर्म्म को पाप नहीं कह सकते; वह अपने नग्न रूप में पूर्ण है, पवित्र है। संसार ही युद्धक्षेत्र है, इसमें पराजित होकर शस्त्र अर्पण करके जीने से क्या लाभ? तुम युद्ध में हत्या करना धर्म्म समझते हो, परन्तु दूसरे स्थल पर अधर्म्म?

शर्व०--हाँ।

प्रपंच०--मार डालना, प्राणी का अन्त कर देना, दोनों स्थलों में एक-सा है, केवल देश और काल का भेद है। यही न?

शर्व०--हाँ, ऐसा ही तो।

प्रपंच०--तब तुम स्थान और समय की कसौटी पर कर्म्म को परखते हो, इसीसे कर्म्म के अच्छे और बुरे होने की जाँच करते हो।

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