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द्वितीय अंक
 


शर्व०--दूसरा उपाय क्या?

प्रपंच--है क्यों नहीं। हम कर्म की जाँच परिणाम से करते हैं, और यही उद्देश तुम्हारे स्थान और समयवाली जाँच का होगा।

शर्व--परन्तु जिसके भावी परिणाम को अभी तुम देख न सके, उसके बल पर तुम कैसे पूर्व कार्य कर सकते हो?

प्रपंच०--आशा पर, जो सृष्टि का रहस्य है। आओ इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण दें। (मदिरा का पात्र भरता है, स्वयं पीकर सबको पिलाता है; चार-बार ऐसा करता है।)

प्रपंच०--क्यों, कैसी कड़वी थी?

शर्व०--उँह, हृदय तक लकीर खिंच गई!

भटार्क--परन्तु अब तो एक आनन्द का स्रोत हृदय में बहने लगा है।

शर्व०--मैं नाचूँ? (उठना चाहता है)

प्रपंच०--ठहरो, मेरे साथ।

(उठकर दोनों नाचते हैं, अकस्मात लड़खड़ाकर प्रपंचबुद्धि गिर पड़ता है, चोट लगती है।)

भटार्क--अरेरे! (सम्हलकर उठाता है)

प्रपंच०--कुछ चिन्ता नहीं।

शर्व०--बड़ी चोट आई।

प्रपंच०--परन्तु परिणाम अच्छा हुआ। तुम लोगों पर भारी विपत्ति आनेवाली थी।

भटार्क--वह टल गई क्या? (आश्चर्य्य से देखता है)

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