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स्कंदगुप्त
 


शर्व०--क्यों सेनापति! टल गई?

प्रपंच०--उस विपत्ति का निवारण करने के लिये ही मैंने यह कष्ट सहा। मै तुम लोगों के भूत, भविष्य और वर्तमान का नियामक, रक्षक और द्रष्टा हूँ। जाओ, अब तुम लोग निर्भय हो।

भटार्क--धन्य गुरुदेव!

शर्व०--आश्चर्य!

भटार्क--शंका न करो, श्रद्धा करो; श्रद्धा का फल मिलेगा। शर्व! अब भी तुम विश्वास नहीं करते?

शर्व०--करता हूँ। जो आज्ञा होगी वहीं करूँगा।

प्रपंच०--अच्छी बात है, चलो--

( सब जाते हैं, धातुसेन का प्रवेश )

धातुसेन--मै अभी यहीं रह गया, सिंहल नहीं गया। इस रहस्यपूर्ण अभिनय को देखने की इच्छा बलवती हुई। परन्तु मुद्गल तो अभी नहीं आया, यहीं तो आने को था। (देखता है) लो, वह आ गया!

मुद्गल--क्यों भइया, तुम्हीं धातुसेन हो?

धातु०--(हँसकर) पहचानते नहीं?

मुद्गल--किसीकी धातु पहचानना बड़ा असाधारण कार्य है। तुम किस धातु के हो?

धातु०--भाई, सोना अत्यंत घन होता है, बहुत शीघ्र गरम होता है, और हवा लग जाने से शीतल हो जाता है। मूल्य भी बहुत लगता है। इतने पर भी सिर पर बोझ-सा रहता है। मैं

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