पृष्ठ:स्कंदगुप्त.pdf/६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
द्वितीय अंक
 


सोना नहीं हूँ, क्योंकि उसकी रक्षा के लिये भी एक धातु की आवश्यकता होती है, वह है 'लोहा'।

मुद्गल--तब तुम लोहे के हो?

धातु०--लोहा बड़ा कठोर होता है। कभी-कभी वह लोहे को भी काट डालता है। उहूँ, भाई! मैं तो मिट्टी हूँ-मिट्टी, जिसमें से सब निकलते हैं। मेरी समझ में तो मेरे शरीर की धातु मिट्टी है, जो किसीके लोभ की सामग्री नहीं, और वास्तव में उसीके लिये सब धातु अस्त्र बनकर चलते हैं, लड़ते है, जलते हैं, टूटते हैं, फिर मिट्टी होते हैं! इसलिये मुझे मिट्टी समझो-धूल समझो। परन्तु यह तो बताओ, महादेवी की मुक्ति के लिये क्या उपाय सोचा?

मुद्गल--मुक्ति का उपाय! अरे ब्राह्मण की मुक्ति भोजन करते हुए मरने में, बनियों की दिवालों की चोट से गिर जाने में, और शूद्रों की--हम तीनों की ठोकरों से मुक्ति-ही-मुक्ति है। महादेवी तो क्षत्राणी है, संभवतः उनकी मुक्ति शस्त्र से होगी।

धातु०--तुमने ठीक सोचा। आज अर्द्धरात्रि में, कारागार में।

मुद्गल--कुछ चिन्ता नहीं, युवराज आ गये हैं।

धातु०--मैं भी प्रस्तुत रहूँगा।

( दोनों जाते हैं )

[ पट-परिवर्तन ]

६१