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[ देवकी के राजमन्दिर का बाहरी भाग ]

( मदिरोन्मत्त शर्वनाग का प्रवेश )

शर्व०--कादम्ब, कामिनी, कञ्चन-वर्णमाला के पहले अक्षर! करना होगा, इन्ही के लिये कर्म्म करना होगा। मनुष्य को यदि इन कवर्गों की चोट नहीं तो कर्म्म क्यों करे? 'कर्म' में एक ‘कु’ और जोड़ दें। लो, अच्छी वर्णमैत्री होगी!

कादम्ब! ओह प्यास! (प्याले से मदिरा उड़ेलता है) लाल-यह क्या रक्त? आह! कैसी भीषण कमनीयता है! लाल मदिरा लाल नेत्रों से लाल-लाल रक्त देखना चाहती है। किसका? एक प्राणी का, जिसके कोमल मांस में रक्त मिला हो। अरेरे, नहीं, दुर्बल नारी। ऊँह, यह तेरी दुर्बलता है। चल अपना काम देख, देख–सामने सोने को संसार खड़ा है!

(रामा का प्रवेश)

रामा--पामर! सोने की लंका राख हो गई।

शर्व०--उसमें मदिरा न रही होगी सुंदरी!

रामा--मदिरा का समुद्र उफनकर बह रहा था--मदिरा-समुद्र के तट पर ही लंका बसी थी!

शर्व०--तब उसमें तुम-जैसी कोई कामिनी न होगी। तुम कौन हो–-स्वर्ग की अप्सरा या स्वप्न की चुड़ैल?

रामा--स्त्री को देखते ही ढिलमिल हुए, आँखें फाड़कर देखते हैं--जैसे खा जायेंगे! मैं कोई हूँ!

शर्व०--सुंदरी! यह तुम्हारा ही दोष है। तुम लोगो का वेश-विन्यास, आँखों की लुका-चोरी, अंगों का सिमटना, चलने में

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