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द्वितीय अंक
 


एक क्रीड़ा; एक कौतूहल, पुकारकर--टोककर कहते हैं--"हमें देखो!" हम क्या करें, देखते ही बनता है!

रामा--दुर्वृत्त मद्यप! तू अपनी स्त्री को भी नही पहचानता है--परस्त्री समझकर उसे छेड़ता है!

शर्व०--(सम्हलकर) अयँ! अरे ओह! मेरी रामा, तुम हो?

रामा०--हाँ, मैं हूँ।

शर्व०--(हँसकर) तभी तो मैं तुमको जानकर ही बोला, नहीं भला मैं किसी परस्त्री से--(जीभ निकालकर कान पकड़ता है)

रामा--अच्छा, यह तो बताओ, कादम्ब पीना कहाँ से सीखा है? और यह क्या बकते थे?

शर्व०--अरे प्रिये! तुमसे न कहूँगा तो किससे कहूँगा, सुनो--

रामा--हाँ हाँ, कहो।

शर्व०--तुमको रानी बनाऊँगा।

रामा--(चौंककर) क्या?

शर्व०--तुम्हें सोने से लाद दूंगा।

रामा--किस तरह?

शर्व०--वह भी बतला दूँ? तम नित्य कहती आती हो कि "तू निकम्मा है, अपदार्थ है, कुछ नहीं है"--तो मैं कुछ कर दिखाना चाहता हूँ!

रामा--अरे कहो भी।

शर्व०--वह पीछे बताऊँगा। आज तुम महादेवी के बंदीगृह में न जाना, समझी न?

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