पृष्ठ:स्कंदगुप्त.pdf/७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
स्कंदगुप्त
 



दया दुलार में पल भर भी

विपदा पास न ठहरे

प्रभु का हो विश्वास सत्य तो

सुख का केतन फहरे

(भटार्क आदि के साथ अनंतदेवी का प्रवेश)

अनंत०--परन्तु व्यंग की विषज्वाला रक्त-धारा से भी नहीं बुझती देवकी! तुम मरने के लिये प्रस्तुत हो जाओ।

देवकी--क्या तुम मेरी हत्या करोगी?

प्रपंचबुद्धि--हाँ। सद्धर्म्म का विरोधी, हिमालय की निर्जन ऊँची चोटी तथा अगाध समुद्र के अंतस्तल में भी, नहीं बचने पावेगा; और उस महाबलिदान का आरम्भ तुम्ही से होगा। शर्व! आगे बढ़ो।

रामा--एक शर्व नहीं, तुम्हारे-जैसे सैकड़ों पिशाच भी यदि जुटकर आवें, तो आज महादेवी का अंगस्पर्श कोई न कर सकेगा।

(छुरी निकालती है)

शर्व--मैं तेरा स्वामी हूँ रामा! क्या तू मेरी हत्या करेगी?

रामा--ओह! बड़ी धर्म्मबुद्धि जगी है पिशाच को, और यह महादेवी तेरी कौन है?

शर्व०--फिर भी मैं तेरा......

रामा--स्वामी? नहीं-नहीं, तू मेरे स्वामी की नरक-निवासिनी प्रेतात्मा है। तेरी हत्या कैसी--तू तो कभी का मर चुका है।

देवकी--शांत हो रामा! देवकी अपने रक्त के बदले और

६८