अनन्त०--( क्रोध से ) तो पहले इसीका अंत करो शर्व। शीघ्रता करो।
शर्व०–अच्छा तो वही होगा। ( प्रहार करने पर उद्यत होता है )
( किवाड़ तोड़कर स्कंद भीतर घुस आता है--पीछे मुद्गल और धातुसेन। आते ही शर्वनाग की गर्दन दबाकर तलवार छीन लेता है। )
स्कंद०--( भटार्क से ) क्यों रे नीच पशु! तेरी क्या इच्छा है?
भटार्क--राजकुमार! वीर के प्रति उचित व्यवहार होना चाहिये।
स्कंद--तू वीर है? अर्द्धरात्रि में निस्सहाय अबला महादेवी की हत्या के उद्देश से घुसनेवाला चोर ! तुझे भी वीरता का अभिमान है? तो द्वंद्वयुद्ध के लिये आमंत्रित करता हूँ-बचा अपनेको!
( भटार्क दो-एक हाथ चलाकर घायल होकर गिरता है । )
स्कंद०–मेरी सौतेली माँ ! तुम..?
अनंत०---स्कंद ! फिर भी मै तुम्हारे पिता की पत्नी हैं। | ( घुटनों के बल बैठकर हाथ जोड़ती हुई)
स्कंद०--अनंतदेवी! कुसुमपुर में पुरगुप्त को लेकर चुपचाप बैठी रहो। जाओ मैं स्त्री पर हाथ नहीं उठाता, परन्तु सावधान! विद्रोह की इच्छा न करना, नहीं तो क्षमा असम्भव है।
"अहा! मेरी माँ!"
देवकी--( आलिंगन करके ) आओ मेरे वत्स!
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