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[ अवन्ती-दुर्ग का एक भाग; बंधुवर्मा, भीमवम और जयमाला का प्रवेश ]

बंधुवर्म्मा--वत्स भीम! बोलो, तुम्हारी क्या सम्मति है?

भीम०--तात! आपकी इच्छा; मैं आपका अनुचर हूँ।

जयमाला--परन्तु इसकी आवश्यकता ही क्या है? उनका इतना बड़ा साम्राज्य है, तब भी क्यों मालव ही के बिना काम न चलेगा ?

बंधु०--देवी! केवल स्वार्थ देखने का अवसर नहीं है। यह ठीक है कि शकों के पतन-काल में पुष्करणाधिपति स्वर्गीय महाराज सिंहवर्म्मा ने एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया, और उनके वंशधर ही उस राज्य के स्वत्वाधिकारी हैं; परन्तु उस राज्य का ध्वंस हो चुका था, म्लेच्छो की सम्मिलित वाहिनी उसे धूल में मिला चुकी थी; उस समय तुम लोगो को केवल आत्म-हत्या का ही अवलम्ब निःशेष था, तब इन्हीं स्कंदगुप्त ने रक्षा की थी। यह राज्य अब न्याय से उन्हीं का है।

भीम०--परन्तु क्या वे माँगते है? बंधु०--नहीं भीम! युवराज स्कंदगुप्त ऐसे क्षुद्र हृदय के नहीं; उन्होंने पुरगुप्त को इस जघन्य अपराध पर भी मगध का शासक बना दिया है। वह तो सिंहासन भी नहीं लेना चाहते।

जयमाला--परन्तु तुम्हारा मालव उन्हे प्रिय है!

बंधु०-देवी, तुम नहीं देखती हो कि आर्य्यावर्त्त पर विपत्ति की प्रलय-मेघवमाला घिर रही है; आर्य्य साम्राज्य के अन्तर्विरोध और दुर्बलता को आक्रमणकारी भलीभांति जान गये हैं । शीघ्र ही देशव्यापी युद्ध की संभावना है। इसलिये यह

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