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द्वितीय अंक
 


काओं की मुसक्या कर अवहेला करना, और--और विपन्नों के लिये, अपने धर्म्म के लिये, देश के लिये प्राण देना!

( देवसेना का सहसा प्रवेश )

देवसेना--भाभी! सर्वात्मा के स्वर में, आत्म-समर्पण के प्रत्येक ताल में, अपने विशिष्ट व्यक्तित्व का विस्मृत हो जाना--एक मनोहर संगीत है। क्षुद्र स्वार्थ, भाभी, जाने दो; भइया को देखो--कैसा उदार, कैसा महान् और कितना-पवित्र!

जयमाला--देवसेना! समष्टि में भी व्यष्टि रहता है। व्यक्तियो से ही जाति बनती है। विश्व प्रेम, सर्वभूत-हित-कामना परम धर्म है; परन्तु इसको अर्थ यह नहीं हो सकता कि अपने पर प्रेम न हो। इस अपने ने क्या अन्याय किया है जो इसका बहिष्कार हो?

बंधु०--ठहरो जयमाला! इसी क्षुद्र ममत्व ने हमको दुष्ट भावना की ओर प्रेरित किया है, इसीसे हम स्वार्थ का समर्थन करते हैं। इसे छोड़ दो जयमाला! इसके वशीभूत होकर हस अत्यन्त पवित्र वस्तुओं से बहुत दूर होते जाते हैं। बलिदान करने के योग्य वह नहीं, जिसने अपना आपा नहीं खोया।

भीम--भाभी! अब तक न करो। समस्त देश के कल्याण के लिये--एक कुटुम्ब की भी नहीं, उसके क्षुद्र स्वार्थों की बलि होने दो। भाभी! हृदय नाच उठा है, जाने दो इस नीच प्रस्ताव को। देखो--हमारा आर्य्यावर्त्त विपन्न है, यदि हम मर-मिटकर भी इसकी कुछ सेवा कर सकें••••••

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