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स्कंदगुप्त
 


(भटार्क तलवार निकालता है, गोविन्दगुप्त उसके हाथ से तलवार छीन लेते हैं।)

मुद्गल--महाराजपुत्र गोविन्दगुप्त की जय!

गोविन्द०--कृतघ्न! वीरता उन्माद नहीं है, आँधी नहीं है, जो उचित-अनुचित का विचार न करती हो। केवल शस्त्र-बल पर टिकी हुई वीरता बिना पैर की होती है। उसकी दृढ़ भित्ति है--न्याय। तू उसे कुचलने पर सिर ऊँचा उठाकर नहीं रह सकता है। मातृगुप्त! बन्दी करो इसे।

"और तुम कौन हो भद्रे?"

कमला--मैं इस कृतघ्न की माता हूँ। अच्छा हुआ, मैं तो स्वयं यही विचार करती थी।

गोविन्द॰--यह तो मैंने अपने कानों से सुना। धन्य हो देवी! तुम-जैसी जननियाँ जब तक उत्पन्न होंगी, तब तक आर्य्य-राष्ट्र का विनाश असम्भव है।

"और यह युवती कौन है?"

कमला--मुझे सहायता देतो थी, कोई अभिजात कुल की कन्या है। इसका कोई अपराध नहीं।

मुद्गल--अरे राम! यह भी अवश्य कोई भयानक स्त्री होगी!

मातृगुप्त--परंतु यह अपना कोई परिचय भी नहीं दे रही है!

विजया--मैं अपराधिनी हूँ; मुझे भी बंदी करो।

भटार्क--यह क्यों, इस युवती से तो मैं परिचित भी नहीं हूँ; इसका कोई अपराध नहीं।

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