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तृतीय अंक


[शिप्रा-तट]

प्रपंचबुद्धि--सब विफल हुआ! इस दुरात्मा स्कन्दगुप्त ने मेरी आशाओं के भंडार पर अर्गला लगा दी। कुसुमपुर में पुरगुप्त और अनन्तदेवी अपने विडम्बना के दिन बिता रहे हैं। भटार्क भी बन्दी हुआ, उसके प्राणों की रक्षा नहीं। क्रूर कर्मो की अवतारणा से भी एक बार सद्धर्म्म के उठाने की आकांक्षा थी, परन्तु वह दूर गया! ( कुछ सोचकर ) उग्रतारा की साधना से विकट से भी विकट कार्य्य सिद्ध होते है, तो फिर इस महाकाल में महाश्मशान से बढ़कर कौन उपयुक्त स्थान होगा! चलूँ--

( जाना चाहता है; भटार्क का प्रवेश )

भटार्क--भिक्षुशिरोमणे! प्रणाम्!

प्रपंच०--कौन, भटार्क? अरे मै स्वप्न देख रहा हूँ क्या!

भटार्क--नहीं आर्य्य, मैं जीवित हूँ।

प्रपंच०--उसने तुम्हें शूली पर नहीं चढ़ाया?

भटार्क--नही, उससे बढ़कर!

प्रपंच०--क्या?

भटार्क--मुझे अपमानित करके क्षमा किया। मेरी वीरता पर एक दुर्वह उपकार का बोझ लाद दिया।

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