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स्कंदगुप्त
 

प्रपंच॰-- तुम मूर्ख हो। शत्रु से बदला लेने का उपाय करना चाहिये, न कि उसके उपकारो का स्मरण।

भटार्क-- मैं इतना नीच नहीं हूँ।

प्रपंच०-- परंतु मै तुम्हारी प्रवृत्ति जानता हूँ। तुम इतने, उच्च भी नहीं हो। चलो एकान्त में बात करें। कोई आता है।

(दोनों जाते है)

(विजया का प्रवेश)

विजया-- मैं कहाँ जाऊँ! उस उच्छृखल वीर को मैं लौहश्रृंखला पहना सकूँगी? उसे अपने बाहु-पाश में जकड़ सकती हूँ? हृदय के विकल मनोरथ! आह!

(गान)

उमड़कर चली भिगोने आज
तुम्हारा निश्चल अञ्चल छोर
नयन-जल-धारा रे प्रतिकूल!
देख ले तू फिरकर इस ओर
हृदय की अन्तरतम मुसक्यान
कल्पनामय तेरा यह विश्व
लालिमा में लय हो लवलीन
निरखते इन आँखों की कोर

यह कौन? ओ! राजकुमारी!

(देवसेना का प्रवेश--दूर पर उसकी परिचारिकाएँ)

देवसेना-- विजया! सायंकाल का दृश्य देखने शिप्रातट पर तुम भी आ गई हो!

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