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तृतीय अंक
 

विजया-- आर्य्य! आपके अनुग्रह-लाभ की बड़ी आकांक्षा है।

प्रपंच-- शुभे! प्रज्ञापारमिता-स्वरूपा तारा तुम्हारी रक्षा करे! क्या तुम सद्धर्म की सेवा के लिये कुछ उत्सर्ग कर सकोगी? (कुछ सोचकर) तुम्हारे मनोरथ पूर्ण होने में विघ्न और विलम्ब है। इसी लिये तुम्हें अवश्य धर्माचरण करना होगा।

विजया-- आर्य्य! मेरा भी एक स्वार्थ है।

प्रपंच-- क्या?

विजय-- राजकुमारी देवसेना का अन्त!

प्रपंच०-- और मुझे उग्रतारा की साधना के लिये महाश्मशान में एक राजबलि चाहिये!

भटार्क-- यह तो अच्छा सुयोग है!

विजया-- उसे श्मशान तक ले आना तो मेरा काम है; आगे मैं कुछ न कर सकूँगी।

प्रपंच-- सब हो जायगा। उग्रतारा की कृपा से सब कुछ सुसम्पन्न होगा।

भटार्क-- परन्तु मैं कृतघ्नता से कलंकित होऊँगा, और स्कन्दगुप्त से मै किस मुँह से.....नहीं, नहीं......

प्रपंच०-- सावधान भटार्क! अलग ले जाकर इतना समझाया, फिर भी ... तुम पहले अनन्तदेवी और पुरगुप्त से प्रतिश्रुत हो चुके हो।

भटार्क-- ओह! पाप-पङ्क में लिप्त मनुष्य को छुट्टी नही! कुकर्म उसे जकड़कर अपने नागपाश में बाँध लेता है। दुर्भाग्य!

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