देश के निवासी हों-सब के लिए वही नियम होता है। जिस समय आर्य कहाने वाले लोगों के हाथ में सत्ता थी उस समय उन्होंने अनार्यों के साथ खूब ही मनमानी की थी। उनके शेषांश शूद्र और अस्पृश्य वर्ग है। जब इस प्राथमिक सुधार में ही हमारे समाज की यह दशा है तब हम उसकी गति को अतिमन्द कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। इस दशा में 'स्त्रियों की पराधीनता' वाला प्रश्न इस समाज में उठाना-नीचे खड़े हुए को हिमालय की एवरेष्ट चोटी की ओर दिखाने से बढ़ कर मूल्य वाला नहीं हो सकता। अत्यन्त निर्बल रोगी जैसे घी के पाक को हज़म नहीं कर सकता-स्त्रियों की पराधीनता के विषय में हिन्दू-समाज से हमें उतनी ही आशा है। किन्तु हमारा सब उत्साह युवक-समाज पर अवलम्बित है, उसी से आशा है और उसी के लिए यह काम है।
हमने स्त्रियों की स्वाधीनता का बुरी तरह से नाश किया है। हमारा धर्म यही है कि स्त्रियाँ स्वाधीन न हों, 'न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति' (मनु॰ अ॰ ९, श्लो॰ ३,) 'न भजेत् स्त्री स्वातन्त्रतंय (मनु॰ अ॰ ५, श्लो॰ १४८) 'स्वातन्त्र्यं न क्वचित् स्त्रियं' (याज्ञवल्क्य॰ अ॰ १, श्लो॰ ८५) आदि हमारे शास्त्रीय वचनों में स्त्रियो की स्वाधीनता का पूर्ण अभाव है। 'ढोल गँवार शूद्र पशु नारी + ये सब ताड़न के अधिकारी' (तुलसीदास)। इतना ही नहीं, स्त्रियों की पराधीनता हमारे यहाँ बेहद है।