पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/१५२

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क्योंकि पुरुषों ने स्त्रियो की ऐसी समझ बना डाली है कि,––"स्त्रियों का जन्म तो दूसरों के लिए है, स्त्रियाँ केवल दुःख सहकर दूसरों को सुखी करनेही के लिए हैं।" मेरा सिद्धान्त यह है कि, संसार के तमाम कारोबार जब स्त्री-पुरुषों के अधिकार समान मान कर चलने लगेंगे, तब स्त्रियों की उदात्त कल्पना को जो आत्मसंयम और अपने सुखों के दुर्लक्ष्य का पक्का सबक़ सिखाया गया है वह विशेष करके नष्ट हो जायगा, और उस दशा में अच्छी से अच्छी स्त्री एक अच्छे पुरुष से अधिक आत्मसंयम और परार्थी नहीं होगी। उस दशा में पुरुष अब से अधिक निस्वार्थी और संयमी होंगे; क्योंकि पुरुषों को आज तक जो ऐसी सीख मिलती रही है कि,––"हमारी इच्छा ऐसी बलवान् चीज़ है कि अन्य मनुष्य-प्राणियों (स्त्रियों) को उसे क़ानून कह कर सिर पर चढ़ाये हुए चलना पड़ता है," यह बन्द हो जायगी। पुरुष के मन में बड़ी सरलता से यह बात बैठती है कि, "मैं सब का पूज्य हूँ, सब से होशियार हूँ।" आज तक जिन-जिन को विशेष अधिकार प्राप्त हुए हैं, जो-जो जातियाँ विजयी बनी हैं––उन सब को यही शिक्षा मिली होती है। हमारी दृष्टि जैसे-जैसे नीची श्रेणी वालों पर पहुँचती जाती है, वैसे ही वैसे यह भावना और भी अधिक स्पष्ट होती जाती है, और विशेष करके जिस पुरुष को अपनी अभागिनी स्त्री और बच्चों को छोड़ कर और कोई हुकूमत करने के लिए नहीं मिलता, या जिन्हें कभी दूसरो पर हुकूमत करने

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