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ब्राह्मण।


भारत को यह खटका था कि कर्म की उत्तेजना ही पीछे से कर्ता बनकर हमारे आत्मा को अपने वश में न कर ले। इसी कारण भारत वर्ष में सामाजिक मनुष्य युद्ध और बनिज करता है, परन्तु वह हर घड़ी या जन्मभर केवल सिपाही या बनिया नहीं बना रहता। कर्म को कुल-व्रत बना देने से, कर्म को सामाजिक धर्म बना देने से कर्म-साधन भी होता है और वह कर्म, अपनी सीमाकों लाँघकर, समाज के सामञ्जस्य को नष्ट कर, मनुष्य की सारी मनुष्यता को घेरकर, आत्मा के राजसिंहासन पर अधिकार नहीं कर लेता।

जो द्विज हैं उनको एक समय कर्म-त्याग करना पड़ता है। उस समय वे न ब्राह्मण हैं, न क्षत्रिय हैं और न वैश्य हैं। उस समय वे नित्यकाल के मनुष्य हैं। उस समय कर्म उनके लिए धर्म नहीं रहता। इस लिए थे उसको अनायास ही छोड़ सकते हैं। इस तरह हमारे यहाँके द्विज-समाज ने विद्या और अविद्या दोनों की रक्षा की थी। उन लोगों ने कहा था, "अविद्यया मृत्युं तीर्त्वी विद्ययाऽमृतमश्नुते।" अर्थात् अविद्या से मृत्यु के पार जाकर विद्या से अमृत प्राप्त किया जाता है। यह संसार ही मृत्युलोक है; यही अविद्या है। इसके पार जाने के लिए इसी के भीतर होकर जाना होता है। किन्तु इस तरह जाना होता है कि यही चरम लक्ष्य न हो जाय। कर्म को ही एकदम प्रधानता देने से संसार ही चरम लक्ष्य हो जाता है––अमृत प्राप्त करने की और लक्ष्य ही नहीं रहता, उसके लिए अवकाश ही नहीं रहता। इसी कारण हमारे यहाँ कर्म को एक सीमा के भीतर कर रक्खा है; कर्म को धर्म में मिला दिया है; कर्म को प्रवृत्ति के हाथ में, उत्तेजना के हाथमें, गति के भारी झोंके के हाथ में नहीं छोड़ दिया है। इसी कारण भारतवर्ष में भिन्न भिन्न कामों को भिन्न भिन्न लोगों की श्रेणियों में बाँट दिया है।