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स्वदेश–


धर्म और कर्म का सामञ्जस्य रखने का, और मनुष्य के चित्त से कर्म के अनेक बन्धनों को ढीला करके उसको एक ओर संसार-व्रत में तत्पर और दूसरी ओर मुक्ति का अधिकारी बनाने का, और कोई उपाय तो मुझे नहीं देख पड़ता।

इस सम्बन्ध में यह आपत्ति की जा सकती है कि समाज को इस तरह जकड़ कर अपने को उसके भीतर बंद कर देने से मनुष्य की स्वाधीन प्रकृति पीड़ित होती है। मनुष्य को छोटा करके समाज को बड़ा बनाने के कुछ माने नहीं है। मनुष्य के मनुष्यत्व की रक्षा के लिए ही समाज है।

इसके उत्तर में यही कहना है कि भारतवर्ष ने समाज के भीतर बँधे रहने के लिए समाज को नियमबद्ध और सरल नहीं बनाया। उसने अपने को सैकड़ों विभागों में बँटी हुई अन्ध-चेष्टा में अस्तव्यस्त न करके अपनी मिली हुई शक्ति को अनन्त की ओर एकाग्र करने के लिए ही जान बूझकर इच्छापूर्वक बाहरी विषयों में सङ्कीर्णता स्वीकार की थी। उसका यही उद्देश्य था कि नदी के तट-बन्धन की तरह समाज का बन्धन उसे वेग देगा, कैद नहीं कर रक्खेगा। इसी से भारतवर्ष के सब अनुष्ठानों और कार्यों में सुख-शान्ति-सन्तोष के बीच मुक्ति का आवाहन है। आत्मा के परमानन्दमय ब्रह्म में विकसित करने के लिए ही भारत ने समाज पर अपनी जड़ जमाई थी। यदि हम उस लक्ष्य से भ्रष्ट हो जायँ––जड़ता के कारण उस परिणाम की उपेक्षा करें तो वह बन्धन कोरा बन्धन ही रह जाता है। तब अत्यन्त क्षुद्र सन्तोष और शान्ति का कुछ अर्थ ही नहीं रहता। किन्तु भारतवर्ष का लक्ष्य क्षुद्र या साधारण नहीं है। इस बात को भारतवर्ष ने इन शब्दों में स्वीकार किया है––"भूमैव सुखं नाल्पे सुखमस्ति"; अर्थात् महान् में ही सुख है, थोड़े या क्षुद्र में सुख नहीं है। भारत की ब्रह्मवादिनी ने कहा है––"येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन