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ब्राह्मण।


कुर्य्याम्", अर्थात् जिससे अमर नहीं हो सकती उसे लेकर मैं क्या करूँ। हम लोग केवल परिवार के सुप्रबन्ध और समाज की सुव्यवस्था से अमर नहीं हो सकते––उससे ही हमारे आत्माका विकास नहीं होगा। अच्छा तो फिर समाज यदि हमको सम्पूर्ण रूप से कृतकृत्य नहीं कर सकता––हमारे जन्मको सार्थक नहीं बना सकता, तो वह हमारा कौन है? समाजको रखनेके लिए हमको वञ्चित होना चाहिए––यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती। यूरोप भी कहता है कि जो समाज individual को अर्थात् व्यक्तित्वको लँगड़ा बनाता और दबाता है उस समाजके विरुद्ध विद्रोह न करना हीनता स्वीकार करना है। भारतवर्ष ने भी निःसङ्कोच और निर्भय होकर कहा है कि "आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्", अर्थात् अपनी भलाई और उन्नतिके लिए सारी पृथ्वी को छोड़ना पड़े तो उसका भी त्याग कर देना उचित है। समाज को मुख्य मानना मानों उपायको उद्देश्य बनाना है। भारतवर्ष ने वह करना नहीं चाहा। इसी कारण उसका बन्धन जैसा दृढ़ है उसका त्याग भी वैसा ही सम्पूर्ण है। भारतवर्ष ने अपनेको सांसारिक परिपूर्णता से घेर नहीं रक्खा था; जकड़ नहीं रक्खा था। उसने इसके विपरीत ही किया था। जिस समय सब संचित हो गया, भण्डार भरपूर होगया, पुत्रने बालिग होकर ब्याह कर लिया, जब ऐसी पूर्ण प्रतिष्ठित गृहस्थीमें आराम करनेका भोग करनेका अवसर उपस्थित हुआ, ठीक उसी समय हमारे यहाँ संसार त्यागनेकी व्यवस्था है। हमारे यहाँ ऐसा नियम है कि जबतक परिश्रम करना है तबतक तुम हो; जब परिश्रम बंद हुआ तब आरामसे फल भोग करके जड़ बनना मना है। संसार का काम पूरा होते ही संसार से छुट्टी मिल गई। उसके बाद आत्माकी अनन्त-गति में कोई बाधा नहीं। वह निश्चेष्ट भाव या निठल्लापन नहीं है। संसार की