पृष्ठ:स्वदेश.pdf/१०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
९२
स्वदेश—

दृष्टि से वह जड़ता जान पड़ती है, परन्तु वास्तव में वह जड़ता नहीं है। जैसे पहिये के अत्यन्त घूमते रहने पर वह दिखाई नहीं पड़ता वैसे ही आत्मा की वह अनन्त-गति निश्चेष्टता सी जान पड़ती है। आत्मा की उस गतिको—उस वेगको—चारों ओर तरह तरह से व्यर्थ नष्ट न करके उस शक्ति को जगा देना ही हमारे समाज का काम था। हमारे समाज में प्रवृत्ति को दबाकर नित्य निःस्वार्थ मङ्गल-साधन करने की जो व्यवस्था है, उसे ब्रह्मलाभ का सोपान मानकर ही हम उससे अपना गौरव समझते हैं। वासना या प्रवृत्ति को छोटा करना ही आत्मा को बड़ा करना है। इसी से हम लोग वासना को दबाते हैं—सन्तोष का अनुभव करनेके लिए नहीं। यूरोप मरने को भी राजी है, किन्तु वासना को छोटा करना नहीं चाहता। हम भी मरने को राजी हैं, किन्तु आत्माको उसकी परम गति—परम सम्पत्ति से—वश्चित करके छोटा बनाना नहीं चाहते। परन्तु अभाग्यवश इस दुर्गति के दिन में हम यह भूल गये हैं। हमारा समाज अब भी वही है, किन्तु उसके भीतर से ब्रह्माभिमुखी—मोक्षाभिमुखी बेगवती प्रवाह-धारा 'येनाहं नामृता स्या किमहं तेन कुर्याम्' की ध्वनिके साथ नहीं निकलती।—

"माला हुती तिहिके सब फूल गये झरि, बाकी रही अब डोरी।"

यही कारण है कि हमारा इतने दिनों का समाज हम को बल नहीं देता, गौरव नहीं देता, आध्यात्मिकता की ओर हमको अग्रसर नहीं करता। उसने हमको चारों ओर से मानों जकड़ रक्खा है।

किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि जब हम सचेत होकर इस समाजके महान् उद्देश्य को समझेंगे और उस उद्देश्य को सम्पूर्ण सफल करने के