पृष्ठ:स्वदेश.pdf/१०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
९६
स्वदेश–


चीन का राज्य चीन के राजा का है। यदि कोई राज्य पर चढ़ाई करे तो राजा राजा में लड़ाई छिड़ जायगी। उससे प्रजा की जो हानि होगी वह वैसी सांघातिक नहीं। किन्तु यूरोप में राजा का राज्य नहीं है वहाँ सारा राज्य ही राजा है। राष्ट्रतन्त्र ही यूरोप की सभ्यता का शरीर है। इस शरीर को चोट से बचाये रक्खे बिना उसके प्राण नहीं बच सकते। यही कारण है कि यूरोपियन लोग और किसी चोट का वजन ध्यान में लाही नहीं सकते। विवेकानन्द अगर यूरोप में जाकर वेदान्त-मत का प्रचार करें, अथवा धर्मपाल यदि वहाँ अँगरेज-बौद्ध-सम्प्रदाय की स्थापना करें तो उससे यूरोप के शरीर में चोट नहीं लगती। क्यों कि यूरोप का शरीर धर्म नहीं, राष्ट्रतन्त्र है। इंग्लेंड जिब्राल्टर पहाड़ की रक्षा में जान लड़ा देगा, किन्तु ईसाई-धर्म के सम्बन्ध में सावधान होने की वह जरूरत नहीं समझता।

पूर्वी देशों में ठीक इससे उलटा है। पूर्वी सभ्यता का कलेवर धर्म है। धर्म माने रिलिजन नहीं। उसके माने हैं सामाजिक कर्तव्य-तन्त्र। उसके भीतर यथोचित रूपसे रिलिजन पालिटिक्स आदि सब कुछ है। उसपर चोट करने से सारे देश के हृदय में व्यथा होती है। क्यों कि समाज ही उसका मर्मस्थान है। उसकी जीवनी शक्ति का और कोई आधार नहीं है। शिथिल राजशक्ति इतने बड़े चीन में सर्वत्र अपना जोर नहीं दिखा सकती। राजधान से दूर पर जो देश हैं वहाँ राजा की आज्ञा पहुँचती है; परन्तु राजा का प्रताप नहीं पहुँचता। मगर तब भी यहाँ शान्ति है, सुशृंखला (ठीक बन्दोबस्त) है, सभ्यता है। डाक्टर दिल नने इसपर आश्चर्य प्रकट किया। थोड़ा सा बल खर्च करके इतने बड़े राज्य को संभाले रखना सहज बात नहीं है।

किन्तु इतना बड़ा चीन देश शस्त्र के शासन से नहीं, धर्म के ही शासन से सँभला हुआ है। पिता-पुत्र, भाई-बहन पति-पत्नी, पास