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समाज-भेद।

बाकी है कि यूरोप स्वार्थ और स्वाधीनता का मार्ग खोलकर चिरजीवी हो सकेगा या नहीं।

जो कुछ हो। पूर्व और पश्चिम के ये सब भेद सोचने और समझने की बातें हैं। जब यूरोप की रीतियों पर विचार किया जाता है तब यूरोप के समाज तन्त्र के साथ उसको मिलाकर विचार न करने के कारण हम लोगों के मन में भी उनके प्रति प्रायः अनुचित घृणा उत्पन्न होती है। इसका उदाहरण एक यही है कि हम लोग विलायती समाज की इस रीति पर कटाक्ष किया करते हैं कि उनके यहाँ लड़कियों जवानी तक क्वाँरी रक्खी जाती हैं। यह प्रथा हम लोगों के यहाँ प्रचलित नहीं है, अथवा यों कहो कि हमको इसका अभ्यास नहीं है। इस कारण हम लोग इस बारे मे तरह तरह की आशंकायें किया करते हैं। किन्तु, इस पर हम विचार ही नहीं करते कि बालविधवा को जिन्दगी भर अविवाहित रखना उससे भी बढ़कर खटके का बात है। काँरी लड़की के बारे में हम कहते है कि मनुष्य प्रकृति कमजोर है, परन्तु विधवा के बारे में कहते हैं कि शिक्षा और साधना (अभ्यास) से स्वभाव वश में किया जा सकता है। किन्तु अमल बात तो यह है कि ये सब नियम किसी नीति के तत्त्व से नहीं निकले हैं; आवश्यकता के मारे बन गये है। हिन्दू समाज के लिए छोटी अवस्था में कन्या का ब्याह जैसे जरूरी है, वैसे ही विधवाका चिरकालतक विधवा रहना भी जरूरी है। इसी कारण आशंका होने पर भी विधवाका विवाह नहीं होता और अनिष्ट आर असुविधाक रहते भी कुमारी का बाल्याववाह होता है। आवश्यकता के अनुरोब से ही यूरोप में, आधे क अवस्थाम कुमारा का विवाह और विधवा का पुनर्विवाह प्रचलित हुआ है। वहाँ नाबालग लड़की साथ अलग गृहस्थी चलाना संभव नहीं है, आर विधवाको भी किसी परिवार मे आश्रय नहीं मिलता-