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स्वदेश-

पल्टनी गोरे) देसी लोगों को मार डालने की नियत से नहीं मारते। देसी लोग ऐसे (बोदे) होते हैं कि मार खाते ही मर जाते हैं। इसी कारण टॉमी बेचारेको हलकी सजा मिलने पर देसी अखबार चिल्लाने लगते हैं।

टॉमी के लिए बड़ी हमदर्दी देख पड़ती है, किन्तु वह Sanctity of Life (प्राणका माहात्म्य) कहाँ है? जिस पाशव आघात से हम लोगों की तिल्ली फटती है उसी आघात का वेग क्या उक्त भद्र अखबार की इन कई लाइनों में भी नहीं है? अपनी जाति के किये हुए खून को कोमल स्नेह के साथ देखकर मरे हुए आदमी के घरवालों के विलाप को जो लोग खीझ के साथ धिक्कार देते हैं वे भी क्या खूनकी हिमायत नहीं करते?

कुछ दिनों से हम देखते हैं कि यूरोपियन सभ्यता में साधारणतः धर्मनीति का आदर्श अभ्यास पर ही प्रतिष्ठित हो रहा है। धर्म-बोध की शक्ति इस सभ्यताके अन्तःकरण में उदय नहीं हुई। यही कारण है कि उसके धर्मबोध का आदर्श अभ्यास के घेरेके बाहर मार्ग ही नहीं ढूँढ़ पाता; प्रायः विपथमें विपन्न हो जाता है।

यूरोपियन समाज में अपने ही घर में मारकाट और खूनखराबी नहीं हो सकती; क्यों कि ऐसा व्यवहार वहाँ के सर्व साधारण के स्वार्थ का विरोधी है। कई सदियों से, धीरे धीरे, यूरोप का विष देकर या हथियार से खून करने का अभ्यास छूट गया है।

मगर हत्या तो बिना हथियार चलाये—बिना खून बहाये भी हो सकती है। धर्म का बोध अगर बनावटी न हो, हार्दिक हो, तो ऐसी बिना हथियार की हत्या भी असम्भव हो जाती है और निन्दनीय समझी जाती है।

एक विशेष दृष्टान्त के द्वारा हम अपने कथन को स्पष्ट करने की चेष्टा करेंगे।