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धर्म-बोध का दृष्टान्त।


हेनरी सावेज लेंडर एक प्रसिद्ध भ्रमणकारी हैं। तिब्बतके तीर्थस्थान लासा में जाने की उनको प्रबल इच्छा हुई। सभी जानते हैं कि तिब्बती लोग यूरोपियन यात्रियों और पादरियोंको सन्देह की दृष्टि से देखते हैं। उनके यहाँ की बीहड़ राहें और घाटियाँ विदेशियों को मालूम नहीं हैं। और सच तो यह है कि यही उनकी आत्मरक्षा का प्रधान अस्त्र है। यदि वे लोग इस अस्त्र को भूगोल का पता लगानेवाली जिओग्राफिकल सोसाइटीके हाथमें सौंपकर निश्चिन्त बैठना न पसंद करें तो उनको दोष नहीं दिया जा सकता।

किन्तु यूरोप का यह धर्म है कि और लोग उसका निषेध मानें, पर वह किसी का निषेध न मानेगा। कोई मतलब हो या न हो, केवल विपत्तिको लाँघनेकी बहादुरी दिखानेसे यूरोपमें इतनी वाहवाही मिलती है कि उसे पानेके लिए बहुतोंके मुँहमें पानी भर आता है। यूरोपके बहादुर लोग देश और परदेशमें विपत्तिको खोजते फिरते हैं। चाहे जिस उपायसे हो, जो यूरोपियन लासामें पदार्पण करेगा उसकी प्रसिद्धि और प्रशंसा बेहद होगी।

अतएव बर्फ-मय हिमालय और तिब्बतियों के निषेध को चकमा देकर लासा में जाना ही होगा। लेंडर साहब ने कमाऊँ-अलमोड़ासे इस यात्राका आरंभ किया। उनको एक हिन्दू नौकर भी साथी मिल गया। उसका नाम चन्दनसिंह था।

कमाऊँ प्रान्त में, तिब्बत की सीमा पर, ब्रिटिशराज्य में शोका नाम की एक पहाड़ी जाति बसती है। उस जाति के लोग तिब्बतियोंके डर और उपद्रवसे काँपा करते हैं। लेंडर साहब ने इस बातके लिए बारंबार आक्षेप और खेद प्रकट किया कि ब्रिटिश सरकार तिब्बतियों के उपद्रवसे उन लोगोंकी रक्षा नहीं कर सकती। उन्हीं शोका लोगोंमेंसे ही