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धर्म-बोध का दृष्टान्त।


पढ़ते और आनन्द के साथ उनकी आलोचना या चर्चा करते हैं। यह सब क्या है? बीहड़ बर्फीली राहमें बेचारे सीधेसादे शोका कुलियोंने रातदिन जो असह्य कष्ट भोग किया उसका परिणाम क्या है? मान लो कि लेंडर साहब लासा पहुँच गये; पर उससे जगत् का ऐसा कौन उपकार होना संभव है जिसके लिए इन सब डरे हुए, पीड़ित और इसीसे भागने की इच्छा रखनेवाले मनुष्यों को दिनरात, इतना कष्ट देकर, मार मार कर मौत के मुँह में ले जाना जरा भी उचित समझा जा सके? किन्तु कहाँ, इसके लिए तो लेखक को संकोच नहीं है, पाठकों को दया नहीं है।

लेंडर साहब जानते थे कि तिब्बती लोग कैसी निर्दयता से अत्याचार और हत्या कर सकते हैं, और इस कारण शोका लोग तिब्बतियों को कैसा डरते हैं, तथा उनको तिब्बतियों के हाथसे उबारने या बचानेमें ब्रिटिश सरकार कैसी असमर्थ है। वह यह भी जानते थे कि उनमें जो उत्साह, जोश और लालच काम कर रहे हैं, शोका कुलियों में उनका लेश भी नहीं है। इस पर भी, लेंडर साहब ने अपने ग्रंथ के १६५ पृष्ठ में जिस भाषा में जिस भाव से अपने कुलियों के भय और दुःखका वर्णन किया है उसका तर्जुमा नीचे दिया जाता है––

"उनमें से हर एक, हाथ से मुँह ढककर व्याकुल होकर रोता था। आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। वे सिसक सिसक कर बिलख रहे थे। और, जिस डाकू और एक दूसरे तिब्बती ने मेरा काम लिया था और जिन्होंने डरके मारे भेष बदल लिया था, वे उन लोगों के बोझ के पीछे छिपकर बैठे थे। हम लोग यद्यपि सङ्कटकी अवस्थामें थे तो भी अपने कुलियों की ऐसी व्याकुलता देखकर मैं अपनी हँसी नहीं रोक सका"।