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स्वदेश–


इसके बाद उन अभागों ने भागने का इरादा किया तो लेंडर साहबने यह कहकर उनको निरस्त किया कि जो कोई भागने या दंगा मचाने की चेष्टा करेगा उसे मैं गोली मार दूँगा!

कैसे साधारण कारण से लेंडर साहबके मनमें गोली मार देने की उत्तेजना उत्पन्न हो उठती है, इसका परिचय आगे चलकर मिलेगा। जब तिब्बत के हाकिम ने लेंडर साहब को पहली बार मना किया तब उन्होंने ऐसा ढोंग रचा, मानों वह लौटे जा रहे हैं। उन्होंने एक पहाड़ी दर्रे में उतरकर दूरबीन से देखा कि पहाड़ की चोटी पर कोई तीस सिर पत्थर की आड़ से झाँक रहे हैं। इस पर साहब लिखते हैं कि मुझे बड़ा बुरा लगा। यदि वे मेरा पीछा ही करना चाहते हैं तो खुल्लमखुला ही मेरा पीछा क्यों नहीं करते-दूर से छिपकर देखभाल करने की या पहरा देने की क्या जरूरत! अतएव मैं आठ सौ गज तक निशाना मारनेवाली अपनी राइफेल (बन्दूक) लेकर जमीन पर लेट गया और जो सिर सबसे साफ देख पड़ता था उस पर वार करने के लिए मैंने निशाना ठीक किया"।

साहब के इस "अतएव" में बहार है! छिपकर काम करने से साहब को बड़ी ही नफरत है! उन्होंने और उनके साथी और एक पादरी साहब ने अपने को हिन्दू तीर्थयात्री बताया, और जाहिरा में भारतवर्ष को लौट जाने का ढोंग करके छिपे तौरसे लासामें जानेका उद्योग किया; 'परन्तु दूसरों का छिपकर काम करना उनको इतना असह्य है कि उन्होंने, जमीन पर लेटकर, अपने को छिपाकर, आठ सौ गजी बन्दूक तानकर कहा––"I only wish to teach these cowards a lesson" अर्थात् मैं इन कायरोंको शिक्षा देना चाहता हूँ! दूरसे छिपकर बन्दूक चलाने में साहब जिस पौरुष का परिचय दे रहे थे उसका विचार कर-