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स्वदेश।

नया और पुराना।

म पुराने भारतवर्ष के लोग हैं; बहुत ही प्राचीन और बहुत ही थके हुए हैं। मैं बहुधा अपने में ही अपनी इस जातीय भारी प्राचीनता का अनुभव किया करता हूँ। मन लगाकर जब अपने भीतर नजर डालता हूँ तब देखता हूँ कि वहाँ केवल चिन्ता, विश्राम और वैराग्य है। मानों हमारी भीतरी और बाहरी शक्तियों ने एक लम्बी छुट्टी ले रक्खी है। मानों जगत् के प्रात:काल ही में हम लोग दफ्तर का कामकाज कर आये हैं, इसीसे इस दोपहर की कड़ी धूप में, जब कि और सब लोग कामकाज में लगे हुए हैं हम दर्वाजा बंद करके निश्चिन्त हो विश्राम या आराम कर रहे हैं; हमने अपनी पूरी तलब चुका ली है और पेंशन पा गये हैं। बस, अब उसी पेंशन पर गुजारा कर रहे हैं। मजे में हैं।

इतने ही में एकाएक देख पड़ा कि हालत बदल गई है। बहुत दिनों से ब्रह्मोत्तर में मिली हुई मजीन इस समय नये राजा की अमलदारीमें ठीक दलील-पट्टा न दिखा सकनेके कारण जब्त हो गई है। अचानक हम गरीब हो गये हैं। और सब किसान जैसे मेहनत मजदूरी कर करके मरते