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धर्म-बोधका दृष्टान्त।


नेवाला वहाँ कोई न था। हमने अपने प्राचीन लोगों की कमजोरी की बहुत बातें सुनी हैं, किन्तु चलनी होकर सुई के छेद का विचार करने की प्रवृत्ति, पाश्चात्य लोगों की तरह, हम लोगोंमें नहीं है। असल बात यह है कि शरीरमें जोर रहने से विचारासन पर अकेले दखल कर लिया जाता है, और तब दूसरों पर घृणा करनेका अभ्यास ही जड़ पकड़ लेता है, अपनी ओर देखने का अवसर ही नहीं मिलता।

एशिया और आफ्रिका में भ्रमण करनेवाले साहब लोग अनिच्छुक कुली-मजदूरों पर जो अत्याचार करते हैं, और नये नये देश खोज निकालने की उत्तेजना में उन लोगों को जिस तरह छल-बल-कौशल से विपत्ति और मौतके मुँहमें ढकेल ले जाते हैं सो किसी से छिपा नहीं है। तथापि, sanctity of Life के सम्बन्ध में इन सब पाश्चात्य सभ्य जातियों की समझ अत्यन्त तीव्र होने पर भी, कहीं से उसका प्रतिवाद नहीं सुनाई पड़ता। इसका कारण यही है कि धर्मबोध पश्चिमी सभ्यता की हार्दिक वस्तु नहीं है। वह, स्वार्थ-रक्षा के स्वाभाविक नियम से, बाहर से प्रकट हो गया है। इसीसे यूरोपियन धेरेके बाहर वह दूसरा रूप धारण कर लेता है। यहाँ तक कि उस घेरेके भीतर भी जहाँ स्वार्थ-बोध प्रबल है वहाँ पर दयाधर्म की रक्षा करने की चेष्टा को कमजोरी कहकर यूरोप उससे घृणा करने लगा है। वहाँ युद्ध के समय विरुद्ध पक्षका सर्वस्व जला देने या उन लोगों के अनाथ बच्चों और स्त्रियों को कैद करने के विरुद्ध कुछ कहना सेन्टिमेन्टॅलिटी [महज खयाल ही खयाल] समझा जाता है। यूरोप में साधारणतः झूठ बोलना समझा जाता है किन्तु 'पालिटिक्स' में देखते हैं कि एक पक्ष दूसरे पक्ष पर, झूठ बोलने का कलंक हमेशा लगाया ही करता है। महामति ग्लाडस्टन भी इस कलंकसे नहीं बचे। इसी कारणसे चीन-युद्धमें यूरोपियन सेनाका