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देसी रजवाड़े।

देश और विदेश के सभी लोग कहते हैं कि भारतवर्ष के देसी राज्य पिछड़े जाते हैं। इस बात को सभी स्वीकार करेंगे कि जगत् की उन्नतिकी दौड़ में पिछड़ जाना अच्छा नहीं; किन्तु उसके साथ ही यह बात विचारणीय है कि आगे बढ़ने के सभी उपाय समान रूपसे उपकारी नहीं हैं। अपनी शक्तिके द्वारा अग्रसर होना ही यथार्थ आगे बढ़ना है––उसमें यदि धीमी गति हो तो वह भी अच्छा है। दूसरे आदमीकी गोद में या पीठ पर चढ़कर आगे बढ़ने में कोई गौरव नहीं है––क्यों कि चलने की शक्ति पाना ही यथार्थ लाभ है; केवल किसी तरह आगे बढ़ने में ही कोई फायदा नहीं। यह सच है कि हम ब्रिटिश-राज्य में आगे बढ़े हैं; परन्तु उसमें हमारी खूबी कितनी है! उसके शासनकी और रक्षा की विधिव्यवस्था, अर्थात् राज्यप्रबन्ध, कितना ही अच्छा क्यों न हो, पर वह वास्तव में हमारा नहीं है। हमको स्मरण रखना चाहिए कि भूलचूक हानि कष्ट आदि के बीच होकर ही मनुष्य पूर्णताके मार्ग में आगे बढ़ता है। परन्तु ब्रिटिश-राज्यको इतना धैर्य नहीं है कि वह हमको भूल करने दे। इसी कारण वे लोग हमको भिक्षा दे सकते हैं, शिक्षा नहीं दे सकते। उन लोगोंका जो अपना है उसके उपयोग का सुभीता वे हमें दे सकते हैं, परन्तु उसका स्वत्वाधिकार नहीं दे सकते। मान लो कि कलकत्ता-म्युनिसिपालिटीके पहलेके कमि-