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देसी रजवाड़ों।


जो मिलता है वह हमारा नहीं है। इसी कारण हमलोग राजा से नित नये अधिकारो की लगातार प्रार्थना करते हैं। यह हम भूल जाते हैं कि अधिकार पाना और अधिकारी होना एक ही बात नहीं है।

देसी रजवाड़ों के शासन में भूलचूक और उनकी धीमी चाल होने पर भी उसमें सन्तोष की बात यही है कि उससे जो लाभ होता है वह वास्तव में हमारा निज का लाभ है। वह दूसरे के कन्धे पर चढ़कर चलने का लाभ नहीं, अपने पैरों चलने का लाभ है। इसी कारण भुझसे अपने बंगाल के इस छोटे से त्रिपुरा (टिपरा) राज्य पर उत्सुक दृष्टि डाले बिना नहीं रहा जाता। यही कारण है कि यहाँ की राज्य व्यवस्था में मुझे जब कोई कमी या विघ्न-बाधा देख पड़ती है तब उसे मैं सारे बंगाल-का अभाग्य समझता हूँ। इसीसे त्रिपुरा के राज्यशासन में यदि कोई असम्पूर्णता या प्रबन्धमे त्रुटि देखता हूँ तो शेखी के साथ उसकी आलोचना करनेको जी नहीं चाहता; मेरा सिर नीचा होजाता है। इसी कारण, यदि मुझे मालूम होता है कि तुच्छ स्वार्थपरता (खुदगरजी) अपने साधारण लाभके लिए––वर्तमान जरासी सुविधा के लिए, राज-लक्ष्मी के मन्दिर की नींव हिला देने में भी नहीं हिचकती, तब उस अपराध को एक छोटेसे राज्य को साधारण घटनामात्र मानकर मुझसे निश्चिन्त नहीं रहा जाता। इन देसी रजवाड़ों की लाजक्षको ही यदि हम अपना यथार्थ गौरव नहीं समझते तो देश के सम्बन्ध में हमने कुछ भी नहीं जाना।

पहले ही कहा जा चुका है कि भारतकी प्रकृति को शक्ति के द्वारा सबल बना ले सकने पर ही हम सच्ची उन्नति प्राप्त करनेकी आशा कर सकेंगे। ब्रिटिश-सरकार, इच्छा करने पर भी, इस विषयमें हम लोगों-की सहायता नहीं कर सकती। इसका कारण यह है कि ब्रिटिश जाति