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स्वदेश–


अपनी महिमा को ही केवल महिमा समझती है। इसीसे वे लोग अच्छे मन से भी जो शिक्षा हमको देते हैं उस शिक्षा को पाकर हम अपने देश-पर घृणा करना सीखते हैं। हम लोगों में जो लोग पेट्रियट या देश-हितैषी के नाम से प्रसिद्ध हैं उनमें से कितने ही महाशय इस घृणा करनेवाली मण्डली के मुखिया हैं। इस प्रकार जो लोग सच्चे भारत का हृदय से अनादर करते हैं वे ही भारत को विलायत बनाने के लिए छटपटा रहे हैं। सौभाग्य की बात यही है कि उनकी यह असम्भव आशा सफल नहीं हो सकेगी।

हमारे देसी रजवाड़े पीछे पड़े रहें या चाहे जो हो, उन्हीं में हम अपने देश के यथार्थ रूप को देखना चाहते हैं। हम यही चाहते हैं कि विकार और अनुकरण की बीमारी उनमें न घुसने पावे। यह सच है कि ब्रिटिश सरकार हमारी उन्नति चाहती है; पर वह ब्रिटिश चाल से होनी चाहिए। ऐसी अवस्था में यह होता है कि कमल-पुष्प की उन्नति-प्रणाली से गुलाब की उन्नति की जाती है। किन्तु मैं यही चाहता हूँ कि ये देसी रजवाड़े, बाधा-रहित स्वाभाविक नियमसे देश की उन्नति के उपाय निश्चित करें।

इसका कारण यह नहीं कि हम भारतकी सभ्यताको ही सब सभ्य- ताओं से श्रेष्ठ समझते हैं। यूरोप की सभ्यता मनुष्यजाति को जो सम्पत्ति दे रही है उसके अमूल्य होने के बारे में सन्देह करना धृष्टता के सिवा और कुछ नहीं है।

अतएव मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि यूरोप की सभ्यता को, निकृष्ट मानकर, त्याग देना चाहिए। मेरा मतलब यह है कि वह हम लोगों के लिए अस्वाभाविक है; इसी से हमको अपने देश के आदर्श पर ध्यान देना-जी लगाना चाहिए। देसी और यूरोप के, दोनों आद-