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स्वदेश–


इस आदर्श का परिचय पाते तो सचमुच एक शक्ति प्राप्त करने का सुभीता होता। क्योंकि यह शिल्पकला का आदर्श हमारे देश में ही है यदि एक बार हमारी आँखें खुल जातीं तो हम इस शिल्पकला के आदर्श को अपने सारे देश के बीच––थाली में, लोटे में, बटलोई, टोकरी में, डलिया में, मन्दिर में, मठ में, कपड़े में, गहने में, घर की दीवारों में––अनेक अङ्ग-प्रत्यङ्गों से पूर्ण एक समग्र मूर्ति के रूप में देख पाते; उसकी ओर अपने तत्पर चित्त को लगा सकते; अपने बापदादे की सम्पत्ति को पाकर उसे व्यवसाय की पूँजी बना सकते।

इसी कारण हमारे शिक्षा प्राप्त करने की अवस्था में विलायती चित्रों के शौक को जबरदस्ती जड़ से उखाड़ डालना अच्छा है। नहीं तो, अपने देश में क्या है––यह देखने की प्रवृत्ति ही न होगी; केवल अनादर की आँधी में अन्धे होकर हम अपने घर की सन्दूक में रक्खे हुए धनको भी गवौँ बैठेंगे।

मैंने देखा है कि जापान के एक सुप्रसिद्ध चित्रकलाकुशल विद्वान् इस देश के कीड़ोंके खाये हुए कई प्राचीन चित्र देखकर बहुत ही विस्मित और प्रसन्न हुए थे। वह यहाँसे एक चित्र-पट ले गये। जापान के अनेक कदरदानों ने उस चित्रको बहुत अधिक मूल्य देकर खरीदना चाहा; पर वह बेचनेको राजी नहीं हुए।

मैं यह भी देखता हूँ कि यूरोप के बहुतेरे चित्रकलारसिक विद्वान् हमारे देश की अनेक अप्रसिद्ध दूकानों और बाजारों में घूम फिर कर फटे मैले पुराने कागजों पर बने हुए चित्रोंको बहुमूल्य मालकी तरह बड़े यत्नसे खरीदकर ले जाते हैं। वे वही चित्र होते हैं जिनको देखकर हमारे आर्ट-स्कूल के विद्यार्थी नाक सिकोड़ा करते हैं। इसका कारण क्या है? इसका कारण यही है कि जिन्होंने ठीक रीतिसे कलाविद्याको