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स्वदेश–

और मालगुजारी अदा करते हैं वैसे ही, वही, हमको भी करना होगा। पुरानी जाति को अब अचानक नई चेष्टा करने के लिए विवश होना पड़ है।

इसी लिए अपनी चिन्ता रहने दो, विश्राम से उठो, घरका कोना छोड़ो। अब केवल व्याकरण, न्यायशास्त्र, श्रुति, स्मृति, और गृहस्थीके नित्य और नैमित्तिक कामोंको ही लिये पड़े रहने से काम नहीं चलेगा; कड़े मिट्टीके ढेले फोड़ों, धरतीको उपजाऊ बनाओ और नये राजाको कर (टैक्स) दो; कालेजों में पढ़ो, होटलों में खाओ और आफिसों में नौकरी करो।

हाय! भारतवर्ष की चहारदीवारी को तोड़कर इस खुले हुए काम- काजके मैदानमें हम लोगोंको लाकर किसने खड़ा कर दिया। हम लोगोंने चारों ओर मानसिक 'बाँध' बाँधकर कालस्रोतको बन्द कर दिया था और अपनी इच्छाके अनुसार अपना सब कुछ समेटे हुए लिये बैठे थे। भारतवर्ष के बाहर चंचल परिवर्तन समुद्रकी तरह दिन रात गरजता था, पर हम लोग अटल स्थिरतामें स्थित रहकर गतिशील सारे संसार के अस्तित्वको भी भूले हुए बैठे थे। इसी समय न-जाने किस छिद्र से चिर-अशान्त मानवस्रोत हम लोगोंमें घुस आया और उसने हमारा सब कुछ नष्टभ्रष्ट कर दिया। उसने पुराने में नया मिला दिया, विश्वासमें संशय डाल दिया और सन्तोष में दुराशाका आक्षेप पटक दिया––इस प्रकार सब ही कुछ उलटपुलट डाला।

मान लो कि हमारे भारतके चारों ओर हिमालय और समुद्र की रुकावट और भी दुर्गम होती, तो यहाँ के लोग एक अज्ञात एकान्त घेरे में स्थिर शान्त भावसे एक प्रकारकी संकुचित परिपूर्णता प्राप्त करने का अवसर पाते। वे संसार की खबर कुछ विशेष न जान पाते और