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देसी रजवाड़े।


सीखा है वे विदेश के अपरिचित रीति से बने हुए चित्रों के सौन्दर्य को भी अच्छी तरह देख पाते हैं। उनमें एक प्रकार की शिल्पदृष्टि पैदा हो जाती ह। किन्तु जो लोग केवल नकल करके सीखते हैं उनको उस नकल के सिवा कुछ भी नहीं देख पड़ता।

हम यदि अपने देश की शिल्पकला को सम्पूर्ण रूप से, यथार्थ रूप से देखना सीखते तो हममें वही शिल्प-ज्ञान पैदा होता जिसकी सहायतासे शिल्प-सौन्दर्य के भव्य भवन के सब दरवाजे हमारे सामने खुल जाते। किन्तु विदेशी शिल्प की निपट अधकचरी शिक्षा में, जिसे हमने नहीं पाया उसको समझते हैं कि पा गये। फल यह होता है कि जो पराई तहबील में ही रह गया है उसको अपनी दौलत समझ कर हम घमण्ड में आजाते हैं।

'पिपर लोटी' यह कल्पित नाम देकर लेख लिखनेवाले प्रसिद्ध फरासीसी यात्री जब भारत में भ्रमण करने आये थे तब वे हमारे देशके राजभवना में विलायती सामान की भरमार देखकर बहुत ही खिन्न और हताश हुए थे। उन्होंने समझा था कि इस देश के बड़े-बड़े राजा-रजवाड़े भारी अशिक्षा और नासमझी के कारण ही विलायती सामान की बिलकुल घटिया और रद्दी चीजों से घर सजाकर उसी में अपना गौरव समझते हैं। सच बात तो यह है कि विलायती सामग्री को ठीक ठीक पहचानना और सीखना विलायत में ही सर्वथा सम्भव है। वहाँ शिल्प-कला में जान है। वहाँ के शिल्पी (कारीगर) नित्य नई तरकीबें निकाला करते हैं। वहाँ उनकी विचित्र शिल्प-पद्धतिका सिलसिलेवार इतिहास है। वहाँ के गुणी लोग उस इतिहास की हरएक पद्धति से देश-काल-पात्रका मिलान करना जानते हैं। और हम? हम उसमें से कुछ भी नहीं जानते; मूर्ख दूकानदार की सहायता से––अर्थात् उसके द्वारा––