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स्वदेश–


बेसिर पैर का निकृष्ट विलायती सामान खरीद खरीदकर घरों में ढेर करते हैं और उसके बदले आँख मूँदकर रुपयों की थैलियाँ खाली करते जाते हैं। वह सामान कैसा है या क्या है, इस पर विचार करना हमारी शक्ति-के बाहर है।

भारत में जो ये निकृष्ट विलायती असबाब की दूकानें हैं इन्हें यदि लार्ड कर्जन महाशय जबरदस्ती बन्द कर जाते तो बहुत अच्छा होता। हम लोग फिर लाचार होकर अपने देश की चीजों को देखते और उनकी इज्जत करते। तब रुपये के बल से चीज खरीदने की चाल उठ-जाती; रुचिकी चर्चा होती। हम किसी रईस के घर जाकर वहाँ दूकान का परिचय न पाते; बल्कि मालिक-मकान के शिल्पज्ञान का परिचय पाते। और, यही हमारे लिए यथार्थ शिक्षा और यथार्थ लाभ होता। हम अपने भीतर और बाहर, अपने स्थापत्य (थवईगीरी) और भास्कर्य (नक्काशी) में, अपने घरकी दीवारों और बाजारों में स्वदेश को पाते।

दुर्भाग्यवश सभी देशों के नीचे दरजे के लोग अशिक्षित हुआ करते हैं। साधरण अँगरेजों को शिल्पसम्बन्धी अभिज्ञता नहीं है। इस कारण उनमें स्वदेशीभाव का अन्ध-संस्कार इतना प्रबल है कि वे उत्कृष्टता और निकृष्टता की विवेचना नहीं कर पाते। वे हमसे अपने ही अनुकरण की प्रत्याशा करते हैं। हमारी बैठक में अँगरेजी दूकानों का सामान देखने से ही वे खुश होते हैं––तभी वे समझते हैं कि हम लोग उनकी फरमाइश के माफिक बने हुए 'सभ्य-पदार्थ' हो रहे हैं। उन्हीं-की अशिक्षित रुचि के अनुसार हमारे देश का प्राचीन शिल्प-सौन्दर्य, आप हटकर, सस्ती और निकृष्ट नकलको जगह दे रहा है। इस देश के शिल्पी भी विदेशी रुपये के लालच में पड़कर अन्धे की तरह विदेशी रीति की अजीब नकल कर रहे हैं।