पृष्ठ:स्वदेश.pdf/१३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१२
देखी रजवाड़े।


यास ही, सहज में, ग्रहण कर सकते; यदि, वह हम को बोझ सा न दिखाई देता; रजवाड़े अगर एक तरह के आफिस-मात्र बन जाने की चेष्टा में हरदम सिरतोड़ प्रयत्न न करते; और, जिसका हमारे सजीव अन्तःकरण से सन्बन्ध था उसे अब कल के नल से जोड़ने की––हमतक पहुँचाने की––चेष्टा न होती; तो आपत्ति करने की कोई बात न थी।

हमारे रजवाड़े क्लर्को से चलनेवाले कम्पनियों के कारखाने नहीं हैं––भूल और विकार से रहित कल के एंजिन नहीं हैं––उनके प्रजा के साथ जो सम्बन्ध-सूत्र हैं वे लोहे की जंजीरें नहीं हैं, ये हृदय की रगें हैं––जब जब वे नसें सूखने लगती हैं तब तब राजलक्ष्मी रस सींचती है, कठिन को कोमल बनाती है, तुच्छ को सौन्दर्य से मढ़ देती है, देन लेनके मामले को कल्याणकी कान्ति से उज्जवल बना देती है और भूल-चूक को क्षमा के अश्रुजल से धो देती है––माफ कर देती है।

हम ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि हमारा अभाग्य हमारे इन दे सी रजवाड़़ो को विदेशी आफिस के साँचे में ढालकर उन्हें एक मेशीन ना बना डाले। इन्हीं रजवाड़ों में हम लोग स्वदेशलक्ष्मी के स्तन्य-सिक्त स्निग्ध हृदय का सजीव और कोमल स्पर्श पा सकते हैं। हम चाहते हैं कि इन्हीं रजवाड़ों के भीतर देश की भाषा, देश का साहित्य, देशका शिल्प, देश की रुचि और कान्ति माता की गोद में आश्रय पावें और देश की शक्ति, मेघ-मुक्त पूर्ण चन्द्रमा की तरह, अपने को, अत्यन्त सहज और अत्यन्त सुन्दर भाव से प्रकाशित कर सके।

समाप्त.