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स्वदेश–

तथापि इस सागर में नाव चलाने की इच्छा होती है। जब देखता हूँ कि मनुष्य-प्रवाह चला जा रहा है; चारों ओर विचित्र कल्लोल, प्रचण्ड वेग, प्रबल गति और विश्राम-रहित कर्म की छटा दिखाई पड़ रही है तब मेरा भी मन नाच उठता है; तब जी चाहता है कि बहुत वर्षों के गृहबन्धन को तोड़ताड़ कर एकदम बाहर निकल पडूँ। किन्तु उसके बाद ही अपनेको खाली-हाथ देखकर सोचता हूँ कि राह खर्च कहाँ है! हृदय में वह असीम आशा, जीवन में वह न थकनेवाला बल, और विश्वास का वह अटल प्रभाव कहाँ है! तब तो पृथ्वी के एक कोने में यह हमारा अज्ञात-बास ही भला है, यह स्वल्प सन्तोष और निर्जीव शान्ति ही हमारे लिए गनीमत है।

तब बैठे बैठे मन को यही कहकर समझाता हूँ कि हम यद्यपि यन्त्र (कलें) नहीं तैयार कर सकते, जगत् के गूढ़ तत्त्वों का आ विष्कार नहीं कर सकते, किन्तु प्रेम कर सकते हैं, क्षमा कर स कते हैं, एक दूसरे के लिए, अपनी जगह छोड़कर, जगह दे स कते हैं। फिर दुःसाध्य निराशा से अस्थिर होकर भटकते फिरने की क्या जरूरत है! बुराई क्या है, हम एक किनारे ही पड़े रहेंगे। टा इम्स के जगत्प्रकाशक कालमों में हमारा नाम न छपेगा, न सही।

किन्तु प्रश्न यह होता है कि जब दुःख है, दारिद्य है, प्रबल का त्याचार है, असहाय के भाग्य में अपमान है, तब केवल एक कि नारे बैठे बैठे घर का काम और अतिथि सत्कार करते रहने से कैसे काम चलेगा? इन दुःखों का प्रतिकार कैसे होगा?

हाय, यही तो भारतवर्ष को असह्य दुःख है! हम किससे लड़ेंगे! रूढ़ मनुष्य प्रकृति की चिरकाल की निठुराई के साथ? ईसामसीह का पवित्र रक्त प्रवाह भी जिसकी निकम्मी कठिनता को आजतक कोमल