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उसे स्वप्न न समझकर 'कर्म' समझते हैं। जगत् के मध्याह्न-सूर्य का प्रकाश छिद्र-मार्ग से प्रवेश करके केवल छोटी छोटी मणियों की तरह झलकता दिखाई देता है और प्रबल आँधी सैकड़ों तंग डालियों के बीच में टकराकर मन्द मर्मर-ध्वनि सी जान पड़ती है। यहाँ जीवन और मृत्यु, सुख और दुःख, आशा और निराशा की सीमा के चिह्न मिट से गये हैं; अदृष्टवाद और कर्मकाण्ड––वैराग्य और गृहस्थाश्रम एक ही साथ चल रहे हैं। यहाँ आवश्यक और अनावश्यक ने ब्रह्म और मिट्टी के पुतले ने, छिनमूल सूखे हुए भूतकाल और जिसमें नई कोंपलें निकल रही हैं ऐसे सजीव वर्तमान-काल ने समान आदर पाया है। शास्त्र जहाँ पड़ा है वहीं पड़ा हुआ है। जिस जगह शास्त्र को ढककर हजारों प्रथा-रूप कीड़ों ने अपना घर बना लिया है वहाँ पर भी कोई आलस्य-मयी भक्ति के मारे हाथ नहीं डालता––सफाई नहीं करता। यहाँ ग्रन्थों के अक्षर और उन ग्रन्थों में लगे हुए कीड़ों के छेद, दोनों ही समान सम्मान के शास्त्र हैं। यहाँ के पीपल के पेड़ों से दरार खाये हुए और टूटे फूटे पड़े हुए मन्दिरों में देवता और उपदेवता, दोनों ही एकत्र आश्रय को प्राप्त होकर विराजमान हैं।

यह क्या तुम्हारे सांसारिक समर की छावनी डालने की जगह है! यहाँ की गिरी हुई दीवार क्या तुम्हारे कल––कारखानों के––तुम्हारे आग की साँस लेनेवाले सहस्रबाहु लौह-दानवों के कारागार बनाने के योग्य है। यह सच है कि अस्थिर उद्योग के वेग से तुम इसकी पुरानी ईंटों को मिट्टी में मिला दे सकते हो; किन्तु यह तो बताओ कि फिर पृथ्वी की यह अत्यन्त प्राचीन शय्याशायिनी (बिछौनों पर पड़ी रहनेवाली) जाति कहाँ जाकर खड़ी होगी? याद रक्खो, ज्यों ही यह चेष्टाहीन नगररूपी घना जंगल नष्ट होगा त्यों ही एक बूढ़ा ब्रह्मराक्षस, जो यहाँ